मैं सोचता हूँ, अब क्या लिखूं,
ऐसा कुछ जो दिल को छू ले,
अपराध, अन्याय, भ्रष्टाचार,
सबका अंत हो जाए, वो कुछ लिखूं।
मैं सोचता हूँ, सोचता ही जाता हूँ,
क्या लिखूं कि ये सब थम जाए,
अगर न हो सके पूर्ण विराम,
तो कम से कम इनका असर घट जाए।
पर मैं हैरान और निराश हो जाता हूँ,
जब देखता हूँ इतिहास के पन्नों को,
कितने महान ग्रंथ रचे गए,
कितने महापुरुषों ने युग बदले।
युग, सदियाँ बीत गईं,
अच्छी बातें सब कह दी गईं,
फिर भी नहीं मिटा सका कोई,
अपराध, अन्याय, भ्रष्टाचार का अंधेरा।
इसलिए मैं लिखने से अब कतराता हूँ,
क्योंकि आदर्श बातें तो बहुत हो चुकीं,
मानवता और कल्याण की बातें भी,
पर आज तक वो नतीजा नहीं आया।
अब मैं सोचता हूँ, अब क्या लिखूं,
मेरा मन बताने पर आ अटका है,
समझाना, विश्वास दिलाना चाहता हूँ,
कि अब इस संसार को जगाना है।
लिखना नहीं, अब बताना है,
समझाना है, दिल में विश्वास जगाना है,
ताकि अंत हो जाए इन सबका,
अपराध, अन्याय, भ्रष्टाचार का।
- प्रतीक झा
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज