प्रिये! तुम्हें देखकर जो लहर उठती है हृदय में,
वही लहर कहीं मस्तिष्क में तूफ़ान बन जाती है।
तुम्हारी मुस्कान में स्वर्गिक सुख का आभास होता है,
परंतु तुम्हारी चुप्पी में—
संसार भर की उलझनें सिमट आती हैं।
मैं नवीन प्रेम का वह पथिक हूँ,
जो तुम्हारी एक दृष्टि पर मोहित होता है,
और फिर उसी दृष्टि के भावों को
हज़ार बार तौलता भी है।
हृदय कहता है—
"यह तो वही है, जिसकी कल्पना बचपन से थी!"
मस्तिष्क टोकता है—
"सावधान! कहीं यह मोह मात्र न हो!"
प्रेम की यह वीणा जब झंकृत होती है,
तो भीतर कवि जाग उठता है,
किन्तु जब तुम उत्तर न दो,
तो तर्क का पुरोहित मुझे सताने लगता है।
कभी सोचता हूँ—
क्या तुम्हारे मन में भी वैसी ही तरंगे उठती होंगी?
क्या तुम्हारे नेत्रों में छुपा यह मौन,
मुझे समझने का प्रयास है या कोई संकेत?
मैं प्रतिदिन यह निर्णय करता हूँ—
कि आज नहीं सोचूँगा अधिक,
पर संध्या होते-होते
तुम्हारी यादें फिर मन का संतुलन बिगाड़ देती हैं।
हे प्रिये!
यदि यह प्रेम है, तो वह क्यों उलझाता है?
और यदि यह मोह है,
तो वह क्यों इतनी गहराई से भीतर उतरता है?
तुमसे मिलकर,
मैं स्वयं से एक नई पहचान माँगता हूँ।
तुम्हारी मुस्कान और मेरी असमंजसता के मध्य,
यह नवयुवक—
प्रेम की पहली परिभाषा गढ़ रहा है।
----अशोक कुमार पचौरी 'आर्द्र'
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