किसी भी तबक़े को जब हक़ नहीं मिलता,
वो हक़ किसी और से छीना करता है।
2.
संसाधन जब कुछ हाथों में सिमटते हैं,
तब भेदभाव नए नक़्शे खींचता है।
3.
रोटी की भूख ने बग़ावत नहीं की,
हक़ की भूख ने ही सियासत पलटी है।
4.
बाँटने का हक़ अगर एक के पास रहे,
तो इंसाफ़ कैसे सबके पास पहुँचे?
5.
मणिपुर जलता रहा और दिल्ली चुप थी,
कुर्सियाँ विदेश के दौरे गिनती रहीं।
6.
फ़िल्मों में कपड़े उतारे गए सौ बार,
पर आत्मा की नग्नता कभी नहीं दिखी।
7.
वन कट गए, हरियाली भाषण में बची,
पेड़ सिर्फ़ विज्ञापन में बोए जाते हैं।
8.
जंगल में अब न हरियाली बची न पशु,
बस राज बचा — जो और भी खतरनाक है।
9.
अदालत चुप है, संविधान मौन है,
क्योंकि निर्णय अब सत्ता की जेब में हैं।
10.
भाषा को राजनीति ने हथियार बना दिया,
अब मातृभाषा भी सवाल बन गई है।
11.
ए.सी. कमरों से गर्मी नहीं जाती,
सड़कों की तपिश समझ में तब आती है।
12.
देश कट रहा है धर्म और ज़ुबान से,
पर नक़्शा वही है जो स्कूल में दिखाते हैं।
13.
जनता भूखी है, किसान कर्ज़दार है,
और नेता माइक पर वादे की खेती करता है।
14.
शिक्षा का हाल पूछो उन अनपढ़ों से,
जो पढ़े-लिखों को रोज़ नौकरी देते हैं।
15.
हर चुनाव में देश को फिर से बेचा गया,
पर नोटों की भाषा किसी ने नहीं पढ़ी।
16.
ये लोकतंत्र का ही कमाल है शायद,
कि सवाल पूछना अब गुनाह बन गया।
17.
केटवॉक चलता है संसद के भीतर,
और भारत भूख के मंच पर बैठा है।
18.
ताली बजती है हर बार घोषणाओं पर,
पर थाली खाली ही रह जाती है।
19.
कभी ईमान बिकता था दरबारों में,
अब संविधान बिकता है बोलियों में।
20.
तुमसे कोई डरता नहीं सत्ता वालों,
बस तुम्हारी चुप्पी से शर्म आती है।
- ललित दाधीच।।