हकीम का इकरार: ज़िंदगी और ज़ख़्म
मैं तमाम उम्र दूसरों का दर्द बाँटता रहा हूँ, मगर अपना अकेलापन ख़ुद से छुपाता रहा हूँ।
वो फ़ैसला जो ख़ुदा का था, उसे क़लम से टालता रहा हूँ, मैं ज़िंदगी और मौत के बीच इक परदा बनाता रहा हूँ।
न मालूम कितनी ख़ुशियाँ लौटा दीं दरवाज़े से, पर ख़ुद के घर की रौनक को नज़र अंदाज़ करता रहा हूँ।
वो अल्फाज़ जो दवा थे, वो ईमान से कहे थे मैंने, मगर अंदर ही अंदर टूटे हुए रिश्तों को संभालता रहा हूँ।
मुझे अहसास था कि मैं इक साया हूँ बस सेवा के लिए, मैं मरहम लगाकर ख़ुद के ज़ख़्मों को भूलता रहा हूँ।
यहाँ हर रात नयी जंग थी, न सुकून का कोई नाम, मैं ख़ुद को जगह देता रहा, किसी और को बचाता रहा हूँ।
ये पसीना नहीं है, ये क़सम है मेरी पूरी उम्र की, वो पल जो जीना था मुझे, वो दूसरों को देता रहा हूँ।
मुझे याद नहीं वो हँसी कब मेरे लबों पे थी, मैं बस किसी की तकलीफ़ को अपनी तकलीफ़ मानता रहा हूँ।
वो दौलत जो कमानी थी, वो तो वक्त की राहों में गुम हुई, मगर लोगों के दिलों में जो जगह मिली, उसे क़ायम रखता रहा हूँ।
अब जब आख़िरी पल है, तो सुकून बस इतना है मुझको, मैं इंसान होकर भी, ख़ुद को फ़रिश्ता बनाता रहा हूँ।
ये अंजाम है सफ़र का, बस इतना ही इल्म रहा है, मैं ज़िंदगी के मक़सद को आख़िरी दम तक जानता रहा हूँ।
- ललित दाधीच

The Flower of Word by Vedvyas Mishra
The novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra



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