दिख रहा था वो मंजर,
नज़र के सामनें जो था।
जल रहा था आशियां
कोई,वरपा क़हर जो था ।।
दिख रहा था अक्श चेहरे पर,
आइना सामनें जो था।
उठ रहा था धुआं बन कर,
गुबार मन में जो था।।
खिलखिलाते गुनगुनाते,
चल रहा था रास्ते में।
मिल गया अतीत आ कर,
वर्तमान को रास्ते में।।
दे गया ठोकर अजूबा,
लड़खड़ाया था रास्ते में।
भावी कहीं पर दूर से ही,
झिलमिलाया था रास्ते में।।
पर सुहाना ख्वाब था वो,
मार्ग को गुजारनें में।
सुर्खरू होना पड़े गा,
भविष्य को संवारनें में।।
दास्तानें क्या सुनायें,
गुज़री हुई उस बात का।
समाधान खुद ढूढ़ना है,
हर उठे जज़्बात का।।
आचरण अनुसरित रहा होगा,
राजा दशरथ कौशल्या का।
राम एक उद्धरण बनें,
मर्यादा पुरुषोत्तम का।।
सोच कर उन हसीं ख़्वाबों को,
यहां पर ऐसे क्यूं पड़ा है।
है नहीं यह तेरी मंज़िल,
मील का पत्थर तो आगे गड़ा है।।
यूं भटकना छोड़ दे,
मोह से मुख मोड़ ले।
शासन निज पर करते हुए,
अनुशासन को तूं जोड़ ले।।
----कृष्ण मुरारी पाण्डेय
[रिसिया-बहराइच।]