उनका ना बोलना धीरे धीरे कसकता रहा।
मैं भी गुम रहने लगा बात को तरसता रहा।।
धरा के दामन पर अश्कों की घटा छाई रही।
दबाव बढ़ जाने के कारण नैन झरता रहा।।
उसको गुमान होना ही था दिल पथरा गया।
दर्द का साया ग़मों में फिर भी धड़कता रहा।।
रीति-नीति चेतन धरा पर शून्यता का राज था।
चाँद पत्थर बनकर आसमाँ में चमकता रहा।।
प्यार की नदियाँ सूखने के कगार पर 'उपदेश'।
ज़ख़्म रिसता ही रहा, जिस्म कसकता रहा।।
- उपदेश कुमार शाक्यावार 'उपदेश'
गाजियाबाद