मैंने ईंटें जोड़ी थीं,
पर दरवाज़ा खुला रखा,
मैंने छत डाली थी,
पर चाँदनी का रास्ता रोका नहीं।
मैंने चाहा था—
मकान नहीं, एक घर हो,
जहाँ दीवारें सिर टिकाने को हों,
न कि दूरियाँ खींचने को।
जहाँ खिड़कियों से
हवा सिर्फ पर्दे न उड़ाए,
बल्कि कहानियाँ सुनाए
उन गलियों की,
जहाँ मेरा बचपन छूट गया।
मैंने दीवारों पर रंग नहीं,
हाथों की छाप छोड़ी,
छत पर साया नहीं,
खुले आसमान का हक़ रखा।
पर यह शहर…
पत्थरों को पहचानता है,
धड़कनों को नहीं।
यहाँ ईटे जुड़ती हैँ शीना चौड़ा करने को,
उसमे घर बसाने का हुनर खो चुका हैं।
मैं मकानों के जंगल में
एक घर की तलाश में भटकता रहा,
जहाँ दीवारों के कान न हों,
पर दिल की धड़कन सुनी जाए।
जहाँ लौटने पर सन्नाटा न हो,
बल्कि किसी की साँसें
दरवाज़े तक चली आएँ…
जहाँ शाम की रसोई में
बर्तनों की खनक
हँसी के शोरगुल में घुल जाए,
जहाँ खिड़कियाँ बाहर नहीं,
अंदर खुलती हों।
जहाँ दीवारें दिल न बाटती हों,
बल्कि उनमें दुआओं की नमी हो।
मैंने मकान नहीं,
एक घर चाहा था…
जो चार दीवारी से कहीं बड़ा हो
-इक़बाल सिंह “राशा“
मानिफिट, जमशेदपुर, झारखण्ड,