सीधी सपाट ज़िंदगी को, किस तरफ़ मोड़ रहे..
कुछ साथ छोड़ गए, कुछ का साथ छोड़ रहे..।
बंध–पत्रों में बेचैन सी, करवट बदलती ज़ागीरें..
दो ग़ज़ ज़मीं की खातिर, दुनियाभर में दौड़ रहे..।
गरीबी रेखा के नीचे आने का, सबब तलाश रहे..
पसीने से भरे अंगोछे, दरबानों में निचोड़ रहे..।
"आम" आदमी ने सोचा, अबके मूल चुक जाएगा..
उधर वो "खास" ब्याज फला कर मूल में जोड़ रहे..।
उनके बयानों से हुए नुकसान का आकलन हो रहा..
कुछ शब्द हटा दिए, और कुछ शब्द जोड़ रहे..।
पवन कुमार "क्षितिज"