नारी थी पर नारी जैसी नहीं,
शौर्य-गाथा थी, कहानी नहीं।
बचपन से ही स्वाभिमानी थी,
संघर्षों में अभ्यस्त रानी थी।
ना था सपना महलों का सुख,
न अभिलाषा रूप-श्रृंगार की।
चाह थी केवल मातृभूमि की,
आहुति दी उसने प्राणों की।
झाँसी की धरती जब पुकारी,
नारी ने सिंहनाद पुकारा।
पुत्र को पीठ पर बाँध चली,
रणभूमि में ज्वाला बन चली।
"मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी!"
यह ललकार नहीं, प्रतिज्ञा थी।
हर नारी की छुपी शक्ति का,
वह उद्घोषित विचार बनी।
घोड़े पर वह बिजली बन दौड़ी,
शत्रु-व्यूह में आँधी सी झोंकी।
रक्त गिरा, पर शीश न झुका,
वीरता का दीप अमर जला।