हमारा मर्ज़ कुछ था, उनकी दवा कुछ और..
रगों में लहू की दरकार थी, मगर बहा कुछ और..।
मु' आफ़ करने का, कहें भी तो कैसे कहें..
उनके हैं कानून कुछ और, सज़ा कुछ और..।
उन पर जाने क्यूं हमें, हर बार यकीं आ ही जाता है..
लगता है उनके बेपर्दा होने हैं, गुनाह कुछ और..।
उनकी बात पर अमल करने को, दिल ना माना..
उनके मन में कुछ और था, दे गए सलाह कुछ और..।
उनसे मुहब्बत की ख़बर, मैने दिल से भी छुपाए रखी..
अब कहीं से तो लाओ, मेरे इस हुनर के गवाह कुछ और..।
वो भटका कर राहें, हमे ले गए मयखाने की ज़ानिब..
ये सब जानते हुए भी, हम होते रहे गुमराह कुछ और..।
किसी और को मैं, क्या कसूरवार कहूं ज़माने में..
अब तो बस खुद से हो जाए, निबाह कुछ और..।
पवन कुमार,क्षितिज"