प्रेम के नाम में कितने छल अक्सर है होते
लेकिन बद अफसोस सभी है भ्रम में जीते
माना है दुनिया बस प्रेम का फल
हाँ यह भी माना है ईश्वर से ऊपर इसका गर्व
निश्चल प्रेम कहाँ राधा का
है कहाँ ओ मीरा बिन देह के नेह निभा दे जो
राधा मीरा ओ ब्रज की गोपाये
कर गई अमर सीता की परंपरा को
अफसोस हम किसे बदनाम कर रहे
ये यशोधरा उर्मिल की है पीड़ा
लक्ष्मण सा त्यागी निभा गया इस प्रेम शब्द को
आख़िर क्यों उसको बदनाम कर रहे
तुक्ष वशना को यह नाम दे रहे
अरे ये नहीं मागता देह का स्पर्श
नहीं मांगता मिलन का ये पावन सुख
नहीं चाहता प्रीतम संग पूनम की रातें
नहीं चाहता प्रणय सूत्र कि सातो बाते
हाँ ये तो आज़ाद है करता ,
प्रेम तत्व सद्गुण है भरता,
है पंचम पुरुषार्थ प्रेम रस
है ईश्वर का मूर्त तत्व यह l
है कान्हा की मुरली की तान ,
है उमा के व्रत का मान ,
है राघव का सेतु महान l
राधा के हिये का जो प्राण ,
प्रेम अटल जग की पहचान
यही जगत का मूल प्राण l
तेजप्रकाश पाण्डेय ✍️