बस ऐसे जा रहे हैं दिन
अहसास खा रहे हैं दिन
भरी दोपहरी में हमें अब
तारे दिखला रहे हैँ दिन
फिसल रहे मछली जैसे
सब चारा खा रहे हैं दिन
सुबह शाम यही पेशा हैं
नये राग सुना रहे हैं दिन
दुबारा अतीत आता कब
यहीं ये समझा रहे हैं दिन
अपने हाथ में बस दुआ है
दवाई नहीं ला रहे हैं दिन
सच कहना आसाँ नहीं है
जुर्म सच पे ढा रहे हैं दिन
दास दो दिन दीवानगी है
फिर हमें बुला रहे हैं दिन
शिव चरण दास