चाहत मेरी यही है एक दोस्त मिले ऐसा मुझको भी
जिसके दिल की बातें सुनूँ मैं जैसे वैसे वो सुने मुझको भी
जाने कैसी विरक्ति घुल गई है इन हवाओं में कहीं से
ख़ुशबू नहीं आती आत्मिकता की देखूँ चाहे जिसको भी
ऐसी भी क्या ज़िंदगानी सब हो गए हैं व्यक्तिवादी
मनुष्य है एक सामाजिक प्राणी क्या ये पता नहीं किसी को भी