दुआओं से भरा एक कलश
वक्त बदला
अंदाज़ बदले
बदले रिश्तों के एहसास
जो नहीं बदला वो है बच्चे का”माँ”से रिश्ता
ऐसा रिश्ता
ज़िन्हें न कुछ समझाना पड़ता है
जिनसे न कुछ माँगना पड़ता है
माँ ,
जो आँखों को पढ़कर बात समझ लेती हैं
शब्दों को सुनकर दिल का सब हाल जान लेती हैं
बर्ताव देखकर ज़िन्दगी के उतार-चढ़ाव परख लेती हैं
सोचते हैं लोग सिर्फ़ नौ महीने ही अपने अन्दर रखकर बच्चे को सींचती है माँ
पर हमारी ज़िन्दगी की पूरी किताब की मुख्य किरदार है हमारी माँ
जिनके बिना हमारी ज़िन्दगी का न आदि है न ही अन्त है
दुआओं से भरा एक कलश है माँ
जो अमृत बन हमारी राहों के काँटे फूलों में बदल देती है ..
वन्दना सूद
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