गगन घेरि तम छाया भारी, कारागार क्रूर कंस अधिकारी।
देवकी वसुदेव बंधन माहीं, अश्रु बहे पर दृढ़ता न जाहीं।
मध्य रजनि जब काल सुधारा, प्रकट नंद घर नील मणि तारा।
नभ में घोष हुआ हरि आया, धरती पर धर्म का दीप जलाया॥
गोकुल धाम हरे-भरे बगिचे, खेलें गोपाल सखाएँ निचे।
माखन चोर रसों में रमता, बंसी तान प्रेम को सम्हरता।
कालिय नाग फुफकारा भारी, पदाघात पाकर लुटी लाचारी।
गोवर्धन गिरि उठाए कर ऊपर, इंद्र का अभिमान किया चूर कर॥
कंसनगरी में रण बिगुल बाजा, कृष्ण सवार, बलराम समाजा।
गदा-चक्र के तेज़ प्रचंड, गिरा कंस रणभूमि अखंड।
मुक्त किए जन माता-पिता को, लौटाया सन्मान प्रथा को।
द्वारका नगरी सागर काठी, सजि विजय पताका प्रभु थाठी॥
जरासंध के दल दलन कराए, यवन सेन को भी हरवाए।
शिशुपाल का मस्तक काटा, सत्यधर्म का दीप जगाया।
कुरुक्षेत्र में गीता गाई, मोह मिटा अर्जुन की काई।
शंख पौंजी रणभेरी बाजी, धर्म विजय की ज्योति सजाई॥
धरा का भार जब घट आया, मधुवन में हरि बंसी गाया।
योगमाया में लीन हुए, वैकुंठ धाम में प्रविष्ट हुए।
जय-जय माधव, जय गिरधारी, रक्षक, संहारक, धर्म-अधिपारी।
जब-जब जग में पाप बढ़ैगा, कृष्णावतार पुनः धरि आएगा॥