घर शब्द! शब्द नहीं एहसास है,
कुछ खोने का नहीं बस पाने की आस है।
छोड़ा घर तो महसूस हुआ क्या क्या खोया,
जिसका इंतजार ना होता था उसके लिए भी रोया।
भूख! भूख क्या होती थी यह मैंने कभी नहीं जाना,
अब याद आता है मां का प्यार और पिता का हाथ से खिलाना।
अंजाना शहर है अंजानी हैं राहें,
मैंने सोचा भी ना था जैसी मिली यहां पनाहें।
पर मत सोचो कि मां के हाथ का मैं यहां ना खाता हूं,
रुको जरा यह दूसरे मांओं की कहानी है जिसे मैं सुनाता हूं।
जगता उम्मीदों के शहर में पेट खाली होता था,
सामने खाली वह भी होता था जो थाली होता था।
वैसे जाता था तो एक गुरु बनकर,
पर ना जाने क्यों घर जैसा एहसास आता था,
मां तो थी घर पर पर मांओ का प्यार यहां भी पाता था।
धन्यवाद इस प्यार के लिए जो आप सब से मैं पाता था,
और क्षमा भी चाहता हूं इसलिए भी जो जता न पाता था।
----राघव दुबे