महंगी हो गई है, दाल रोटी।
सड़कों पर आज भी,
कितनी संख्या रोती।
झोपड़ियां जल रही हैं,
भीषण तापमान में।
न जाने कितने अश्रुओं की,
प्रतिक्षण इनमें वर्षा होती।
अशिक्षा, गरीबी से आज भी,
ज़िन्दगियां जूझ रही हैं।
लाइलाज सूलियों पर चढ़ रही हैं।
जागरूकता,
आज भी अंधेरे में है।
रोती बिलखती ज़िन्दगियां,
आज भी,
विकास के हाशिए पर हैं।