भाग 1 — जब भाभी बनीं घर की ‘महारानी’
घर में आईं तो बोलीं — “अब मेरी चलेगी”,
ननद को देखा और आंखों से ही जलेगी।
काम से दूर, बहानों से पास,
जैसे रोटी नहीं — बनानी हो तलवार की धार।
बोली — “चार रोटियाँ क्या, जान निकलेगी”,
पानी भरने से बोली — “मेरी तबीयत फिसलेगी!”
सास बनी ‘डायन’, ननद ‘हत्यारिन’,
और पति को कहा — “ये सब तो जलती हैं बिन कारण।”
पति को धीरे-धीरे भर दिया ज़हर से,
हर रिश्ते को तोड़ दिया अपनी ‘कुटिल नज़र’ से।
बोली — “मैं ही हूँ तेरा सच्चा घर”,
बाकी सब तो हैं बस जलन का समंदर।
भाग 2 — उत्तर: कर्म का लेखा-जोखा
पर रोटी की गिनती, मन की भूख नहीं मिटाती,
और बुरा बोलने वाली — खुद अपने शब्दों में जल जाती।
जो अपने ही घर को तोड़ती है घमंड में,
वो रिश्तों की राख भी नहीं समेट पाती अंतिम छंद में।
कर्म चुपचाप देखता है, बोलता नहीं,
पर एक दिन ऐसा आता है — जब वो भी डोलता नहीं।
जिसने पति के मन में ज़हर घोला,
एक दिन वही अकेली, खुद के डर से रोई
जो दूसरों को छोटा साबित करने चली थी,
वक़्त ने उसे आईना दिखा — वो खुद में ही गली थी
“जो घर उजाड़ती है चालाकी से —
उसे समय सजा देता है तन्हाई की भट्ठी में।”