समय का पहिया घूमता,
सुबह होती, दोपहर ढलती,
शाम आती, रात गहराती।
प्रकृति की यह लय,
सदियों से चली आ रही है,
जो कभी नहीं बदलती।
बदला तो बस आदमी,
कुछ ऐसे बदला कि,
अपनी बनाई दुनिया में,
जानवर से भी बदतर हो गया।
वह भूल गया अपनी भाषा,
अपनी परंपराओं से खेलने लगा,
और बन बैठा एक नया, आधुनिक आदमी।
समय और नियति से दूर,
जब रिश्तों के चक्रव्यूह में फँसा,
और बीते कल को याद किया,
तो पाया खुद को,
एक सूखे, पत्रहीन पेड़ सा।
आज का आदमी,
समय का मारा, बेचारा,
बाज़ार में ढूंढता है खुद को।
सजी-धजी चीज़ों में,
पाता है खुद को सबसे सस्ता।
भटकता है, ठोकरें खाता है,
तलाशता है अपनी पहचान।