प्रीतम,
यह जीवन रूपी दीपक
हवा के झोंकों से काँप रहा है,
तेल चुक गया, बाती सुलग रही है,
पर इक बार तुम्हारी लौ से
जलना चाहता हूँ…
मैंने उम्रभर
तुम्हारी चौखट की धूल
अपने माथे पर सजाई,
तुम्हारे नाम की रौशनी में
अपनी हर अँधियारी साँझ काटी,
पर आज जब अंतिम साँस
मेरे होठों पर काँप रही है,
तो इक दीद तो बनती है न, प्रीतम…
मैंने हर रात
अपनी पलकों पर
तुम्हारी प्रतीक्षा की चादर ओढ़ी,
हर सवेरे अपने सपनों को
तुम्हारे चरणों में रखा,
पर आज जब सपनों का धुआँ
मेरी आँखों में भरने लगा है,
तो इक झलक तो बनती है न, प्रीतम…
क्या मेरी आह इतनी हल्की थी
कि तुम में एक टिस भी नहीं उठा सकी ?
क्या मेरी पुकार में वह स्वर नहीं था
जो तुम्हे एक पल मेरी ओर मोड़ लेताI
या मेरी भक्ति में कोई दरार थी
जो तुम्हारी दहलीज़ तक
एक बारगी मेरी चाहत की लौ नहीं पहुँची?
प्रीतम,
अब तो यह लौ भी थक गई है,
साँसों की बाती
आखिरी तड़प में सुलग रही है…
बस एक बार,
इक बार—
अपनी आँखों का दीया जलाकर
मुझे देख लो न….
-इक़बाल सिंह “राशा“
मानिफिट, जमशेदपुर, झारखण्ड

The Flower of Word by Vedvyas Mishra
The novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra



The Flower of Word by Vedvyas Mishra




