बोल ज़िंदगी — तू कब समझ आती है?
हर बात अधूरी क्यों रह जाती है?
कभी माँ की मूरत, कभी सौतन सी,
कभी रूह में ज़हर समा जाती है।
मैं हर रोज़ तुझसे गुफ़्तगू करता हूँ,
तू हर रोज़ ख़ामोशी का नाम गाती है।
मैंने इश्क़ किया — तुझे पहचानने को,
तू वही शक्लें फिर दिखा जाती है।
कभी तो बसा मुझे अपनी गोदों में,
कभी यूँ ही जला क्यों जा जाती है?
मैंने तन्हाइयों में तेरा दीदार किया,
तू भीड़ में आकर क्यों मिट जाती है?
जो मेरी नसों में लहू बन बसी थी तू,
अब धड़कनों से डर क्यों खा जाती है?
मैंने हर दर्द से बात करना सीखा,
तू अब भी सवालों से कतराती है।
कभी तू मेरी ग़ज़लों का जश्न बनी,
कभी हर साज को तोड़ जाती है।
बोल ज़िंदगी — तुझसे क्या रिश्ता है मेरा?
कभी अपनाती है, कभी ठुकरा जाती है
अब तो ये हाल है मेरा “शारदा”
मैं जीतती हूँ… और तू हार जाती है।

The Flower of Word by Vedvyas Mishra
The novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra



The Flower of Word by Vedvyas Mishra




