बिखर गए सब ख़्वाब हमारे,
टूट गए अब सपने सारे।
टूट गईं उम्मीदें सारी...
हृदय-प्रष्ठ पर जाने कितने ख़्वाब सजाए थे हमने,
जीवन को लेकर जाने कितने देखे थे सपने।
ख़्वाबों के पन्ने बिखर गए —
खामोश खड़े हम
तितर-बितर बिखरे ख़्वाबों को देख रहे थे,
आँखों से आँसू ढलक रहे थे।
जैसे-तैसे बिखरे ख़्वाबों को समेटा,
हृदय-प्रष्ठ पर उन्हें फिर से चिपकाया,
मन के पटल पर दोबारा सजाया।
उबड़-खाबड़ हो गए पन्ने,
ख़्वाबों में आ गईं दरारें...
क़िस्मत को मंज़ूर यही था —
जो मिला, उसे स्वीकारा हमने।
सरिता पाठक
क्योंकि जीवन ही समझौता है,
और समझौता ही है... ज़िंदगी।