मैंने अपने होने की दीवार
हर रोज़
थोड़ी-थोड़ी गिराई —
और वहाँ
एक बेल उगती गई
तेरे नाम की।
मैंने अपनी भाषा को
चुप्पी में गलने दिया —
तो पत्तों ने
तेरी आवाज़ सी सरसराहट
ओढ़ ली।
जिस दिन मैंने
अपनी इच्छाओं का दीप बुझाया,
तो राते
तेरी साँसो की गर्मी से
जुगनुओं की तरह
चमकने लगी।
मैंने अपने नाम से
पलकों को खाली किया —
तो ओस बनकर
तेरा मौन
मेरे नयनकोण पर ठहर गया।
जब मैंने
हर रिश्ते की गठरी
धरती पर रख दी —
तब बादलों ने
तेरे स्पर्श की नमी
मेरे भीतर टपकाई।
मैंने एक-एक कर
अपनी परछाइयाँ उतारीं —
तो मेरी त्वचा
तेरी रोशनी में सांस लेने लगी।
मैंने खुद को
इतना मिटा दिया
कि मेरा ‘मैं’
अब कोई बाधा नहीं रहा —
और तू,
एक पेड़ की तरह
मेरे भीतर उग आया
छाँव बनकर—
जड़ बनकर, फल बनकर।
-इक़बाल सिंह “राशा”
मनिफिट, जमशेदपुर, झारखण्ड