यदि माँ ने मुझे अपनाया होता,
तो मैं ‘सूतपुत्र’ नहीं,
‘पांडव’ कहलाता।
फिर युद्ध के रथ पर नहीं,
शांति के दीप जलाता।
यदि गुरु ने मेरा हुनर देखा होता,
तो जाति की दीवारें
मेरी प्रतिज्ञा को कुचल न पातीं।
मैं अर्जुन के समक्ष नहीं,
उसके संग खड़ा होता —
एक तीर से नहीं,
धर्म से लड़ता।
यदि द्रौपदी ने मेरा अपमान न किया होता,
तो मैं आग में नहीं,
अश्रुओं में पिघलता।
वो हँसी, जो मेरी देह में गूँजी,
शायद…
उसे मौन में प्रेम सुनाई देता।
यदि कृष्ण ने मुझे अपनाया होता,
तो धर्म की बिसात
पक्षों में न बँटती।
मैं युद्ध का कारण नहीं,
शांति का प्रतिरूप बनता।
यदि सभा ने मुझे सुना होता,
मेरे मौन को समझा होता —
तो क्या कुरुक्षेत्र रक्त से लाल होता?
नहीं…!
तब महाभारत नहीं होता…
न भाई, भाई के सामने खड़ा होता,
न माँ, पुत्र से वियोग में जलती।
न स्त्री के चीर की पुकार
आकाश को फाड़ती।
न गांडीव तना होता,
न चक्र चला होता।
तब इतिहास
शब्दों में नहीं,
सुनवाई में लिखा जाता।
तब ‘धर्म’ एक पलड़े में नहीं,
हर हृदय में होता।
तब महाभारत नहीं होता…
अगर कर्ण को स्वीकारा गया होता…
अगर जाति, जन्म और झूठी मर्यादाएँ
मनुष्यता के ऊपर न रखी गई होतीं,
तो महाभारत,
“महायुद्ध” नहीं,
“महाशांति” होता।