घंटों का क्या कहना,
सुबह से शाम हो जाती थी,
एक दीदार की आस में,
अगर दीदार भी हो गया,
वो भी आधा अधूरा,
नित्य का था यही झमेला,
पागलपन या दीवानापन,
क्या कहूँ आज तक समझ में नही आया,
भूली-बिसरी यादें हैं,
आज भी तन्हा मन में,
रफ्ता-रफ्ता दस्तक दे जाती है !!
#संजय श्रीवास्तव