कुचले हुए अरमानों का
बखूबी बिस्तर सजा लेते हैं
बेशर्मी से मुस्कुरा रहे हैं
हर दर्द दिल में दबा लेते हैं
हालात कैसे भी रहे हो
मस्त होकर झूम लेते हैं
हम नाइंसाफी के ज़हर को
अमृत मान कर पी लेते हैं
गुज़र गये जो पल जाने दो
अब टूटे ख़्वाब साँस लेते है
आह भरते हैं रोज तन्हाई में
ज़ख़्मों को खुद ही सी लेते हैं
- उपदेश कुमार शाक्यावार 'उपदेश'
गाजियाबाद