कभी कहा गया — “तुम बहुत भाग्यशाली हो”
क्योंकि तुम्हें दर्द भी थाली में परोसा गया,
हाथ जोड़ कर दी गईं सीमाएँ,
और कहा — "इसे ही तो स्त्री का सौंदर्य कहते हैं।"
उसने अपनी चुप्पी पहन ली,
जैसे नई साड़ी,
और मुस्कान — जैसे पिघलता हुआ शीशा,
जिसमें दिखता था एक घुटता हुआ अस्तित्व।
वो रोज आईने से पूछती —
"क्या मैं अभी भी वही हूँ?"
आईना चुप रहता,
जैसे बचपन की सहेली जिसे सब भूल चुके हों।
आईने के पीछे छुपी थी एक लड़की —
जो मिट्टी में खेलती थी,
जिसने कभी डर को नाम नहीं दिया था।
प्रेम में मिला मुकुट — फूलों का नहीं,
चुभते नियमों का,
उसने पहन लिया, क्योंकि उसे सिखाया गया था:
"त्याग ही सौंदर्य है।"
उसने अपने सपनों को रोटियों में बेल दिया,
अपने आँसुओं को सिंघार में बदल लिया,
और कहा — "मैं ठीक हूँ।"
किसी सुबह वह उठी, बिना किसी नारे के,
बिना आँसुओं की बाढ़ के,
बस — अपने लिए उठी।
उसने पहली बार "नहीं" कहा,
जैसे कोई नदी खुद अपना किनारा चुन ले।
"औरत मत बनो," उसने खुद से कहा,
"सबसे पहले इंसान बनो।"
अपने विशेषाधिकार त्याग दिए —
वो सब जो दिखने में सुंदर थे, पर भीतर से कैद थे।
वो अब ना कोमल थी, ना कठोर,
बस अपने जैसी थी — पूर्ण, अधूरी, सवालों से भरी,
पर झूठ से मुक्त।
विवाह कोई मंदिर नहीं,
जहाँ स्त्री सिर्फ समर्पण लेकर जाती है।
वो एक सौदा था — चुप रहने का,
कुर्बानी का, और अपने ही सपनों को अनसुना करने का।
शादी के मंडप में उसने नहीं पहना मंगलसूत्र,
बल्कि एक अदृश्य रस्सी,
जिससे उसे बाँध दिया गया "संस्कार" की परिभाषाओं में।
माँ बनना आसान नहीं था —
क्योंकि उससे उम्मीद की गई,
कि वो खुद को भूल जाए,
और बच्चों में ही खुद को पाए।
लेकिन वो टूटी —
हर बार जब उसने खुद से कहा,
कि उसके अपने भी कुछ सपने थे,
जो पालने के कोने में मुरझा गए
अकेली स्त्री जब शाम को लौटती है,
तो उसके पीछे चलती हैं निगाहें,
जैसे उसके शरीर से कोई घोषणा लिखी हो —
"मैं अकेली हूँ, मुझे परिभाषित करो।"
पर वो चलती रही, नज़रें झुकाए बिना,
क्योंकि अब वो जानती थी —
कि दुनिया को जवाब नहीं देना,
अपने होने को जीना
मुक्ति का कोई रूप नहीं होता,
न साड़ी, न बिंदी, न विद्रोह का झंडा,
मुक्ति वो क्षण होता है,
जब एक औरत खुद को देखती है —
पूरे सत्य के साथ, और मुस्कुराती है।