मन व्यथित व्याकुल बहुत हुआ
आंखों से फिर कुछ अश्क गिरा।
हँस कर बरसा था इक बादल
चुप चाप बहा था करुण काजल।
विस्मय से तकती स्पंद रश्मियाँ
रुष्ट हृदय की विकुल धमनियाँ।
आहत अनुराग सुनाती पल पल
राग स्मृति के कंपित कल कल।
अमिय अंबु के प्रवाह प्रपातों से
ढुलकता जाता वह गालों से।
जड़ नहीं चेतन बन बहता
सजल संवेदना की गाथा कहता।
धुल कर मलिनता मौन हुआ
अपना था कल, अब कौन हुआ?
रहस्य बुझने को प्रतिपल
बहा अश्क फिर से कल - कल।
_ वंदना अग्रवाल "निराली "