अपनी नज़र से स्वयम् को जानो
दर्द दिल के क्या जानेगा कोई
जब अपने दिल को ही नहीं जान पाता है कोई
अक्सर जाने अनजाने अपने ही दिल से खेलते हैं हम
नाराज़गी लोगों से
पर ख़ुद को ही मनाते हैं हम
गलती किसी और की
सजा अपने आप की ही देते हैं हम
गवाह भी हम हैं
मुलज़िम भी हम हैं
वकील भी हम ही हैं
पर जज की कुर्सी दूसरों को दे देते हैं
फिर कौनसा दिल और कौनसा दर्द ?
जिसे समझने की हम उम्मीद दूसरों से रखते हैं
जब अपने हर काम को दूसरों की नज़र से ही परखते हैं
जब ख़ुद का वजूद हम ही नहीं रख पाते हैं तो दूसरों को क्यों दोष देते हैं ..
वन्दना सूद