शबनम की बूंदों से अतृप्त ,
पिपासा बुझाने जा रही थी,
गली मोहल्ले गांव शहर में,
बेचारी ठोकरें खा रही थी,
दो जून रोटी के जुगाड में,
वो दुखी मन से जा रही थी ,
शिक्षा काबिलियत के प्रमाण ,
सीने में दफनाए जा रही थी ,
चलते 2 पत्थर की ठोकर से,
वो सबक सीखे जा रही थी ,
गर्दिशों को चुनौती देने की ,
बात उसे समझ आ रही थी,
स्वार्थपरायण जहरीली नागिन,
निर्लज्ज राजनीति सता रही थी ,
चुनावी वायदे रोजगार सृजन के,
वो सहज भुला नहीं पा रही थी ,
छलिया गुडिया जहर सी पुड़िया,
बोटबैंक राजनीति समझा रही थी,
रोजगार रोटी कपड़ा सेहत मकान,
मौलिक अधिकार हो ,चिल्ला रही थी,
हसरत अधूरी ही रही उसके मन की ,
बेचारी बेरोजगारी ऐसे कराह रही थी !
----राजेश कुमार कौशल
[हमीरपुर,हिमाचल प्रदेश]