हर पल को जियो जैसे अंत समीप हो,
और हर व्यवहार को ऐसे निभाओ —
जैसे भगवान खुद देख रहे हों।
और तब…
जब साँसों की माला बिखरने लगी,
धड़कनों की घंटियाँ धीमी पड़ीं,
तो मृत्यु मुस्कराकर सामने आई —
ना काली, ना भयावह…
बल्कि माँ जैसी, शीतल… नयनविहीन, पर दृष्टिवान।
उसने कहा:
“बेटा, चलें?”
आत्मा काँपी नहीं,
बस पलटा और पूछा —
“क्या मैं कुछ अधूरा छोड़ आया?”
मृत्यु बोली:
जो प्रेम अधूरा था, वो तेरा नहीं था।
जो दर्द बाकी है, वो तुझे माँजता रहा।
पर जो तूने हर दिन किसी का दुःख बाँटा,
हर आँसू में अपनी हथेली रखी —
बस वही पूरा जीवन है, और वही तेरा संग है।”
आत्मा फिर बोली:
“मेरे कर्मों का क्या?”
मृत्यु ने मुस्करा कर कहा:
“जो गलत किया, वो तूने समझ लिया —
यही बोध ही मोक्ष की सीढ़ी है।
ईश्वर न्याय करता है, पर क्षमा भी उसी की संपत्ति है।
तू क्षमा माँग सका — यही पर्याप्त है।”
फिर मृत्यु ने धीरे से पूछा:
“कुछ पछतावा?”
आत्मा ने आँख मूँदकर कहा:
“हाँ…
काश और थोड़ा मुस्कुरा लेता,
काश माँ के पाँव और चूम लेता,
काश किसी टूटे को और थाम लेता…
पर अब जानता हूँ —
कि जीवन, पूर्णता की यात्रा नहीं,
बल्कि पुनः लौटने की समझ है।”
मृत्यु बोली:
“तो चलें?”
आत्मा ने हाथ बढ़ाया…
और पहली बार,
मृत्यु को जीवन की तरह महसूस किया।
“मरने से पहले जो समझ में आ जाए, वही सच्चा जीवन है।
बाक़ी साँसें तो केवल ईश्वर की मौन प्रतीक्षा होती हैं…”