सुख जो सीमित है, वो भी अचंभित है।
सब दुख के साये में मुझे पाना चाहते हैं,
कोई भी सुख में रहकर, सुख में नहीं जाना चाहता है।
दुख में घायल होकर, मेरी दवा लगाता है,
मैं समतल में संतुलित हूं,
मैं हूं परदेसी फिर भी विपरीत हूं,
दुख में जो रहता है, रहता है संघर्ष में
वो हसीन अनुभव पा जाते हैं,
पर मेरे ख्वाबों को सींचते सींचते,
वो अहम् भाव में बदल जाते हैं,
सुख है जो दुख है, दुख है जो सुख है
इन्हें कौन समझाए,
पर बात तो संघर्ष की है,
तुम जैसे खेल बनाते हो, वही परिणाम पाते हो।
यह सुख दुख की बात नहीं,
सुख आता है, एक बार आता है, मूल है
वो उषारंभ में नजर आता है,
सुख तो सुख है,
प्रकृति के जीवन का,
मेरे जीवन का,
शायद सबके जीवन का,
अभिमान ने सुख को घेर लिया,
अभिमान सबका अपना था, पर इसमें सुख भी बदनाम हो गया,
सुख हूं, पर मैं से दुखी हूं, मैं खुद के साये में बदनाम हो गया,
इस जीवन में मेरा अपमान हो गया,
संघर्ष की कीमत सुख-दुख को चुकानी पड़ती है,
संघर्ष की चरम सीढ़ी अनुभव है,
अनुभव जो महक उठी भावना है,
वो भाव थे जो उत्पन्न हुए,
चारों ओर अंधेरा होगा, पर मेरे अनुभव से प्रकाश होगा,
जब सब समान है, सुख समान दुख सामान,
अब क्या मान अपमान है,
सब तरफ सम्मान है,
धरती हो चाहे आसमान है,
दुख हो चाहे सुख हो यह अपनी पहचान है,
क्या सही क्या गलत ये प्रज्वलित दीप समान है,
अब क्या दुख क्या सुख,
सब कुछ मूल्यवान है,
पर इससे सुख दुखी इससे दुख दुखी,
देखने वाले ने सृष्टि ही बदल दी,
अरे दृष्टि ही बदल दी,
या तो दृष्टि ही त्याग दी,
अनुभव ने सब छीन लिया,
अब तो अनुभव है,
अब चाहे पैरों से काम करो या हाथों से,
यहां सब समान है,
इस अनुभव की रचना में ना शरीर होगा, ना मन होगा, ना दिल होगा, ना तकदीर होगा
यहां तो सब अनुभव होगा,
हर क्षण भव होगा,
अब तुम्हारा ना रूप होगा ना यौवन होगा,
हर लहजे का काम होगा,
तुम हो तो आखिर एक राख ,
लाख टुकड़ों में जो बंटे हो,
जब खुद बिखरे हुए हो, तो फिर क्यों संग्रह करना चाहते हो,
मानव, नव है, उसमें यह अनुभव है
एक सृजन में अच्छी भावना का ही तो साथ होगा,
अब फिर से ये आरंभ होगा,
इसका कभी ना अंत होगा,
एक नजर से सबका आकलन होगा,
पक्ष विपक्ष भी तय होगा,
जीवन सब में एक होगा,
फिर समय भी ये तय होगा,
हर संसार में सार होगा,
अब ना कोई भय होगा,
हर तरफ जय-जय होगा,
कदमों के संगीत में लय होगा,
अब फिर मधुर कंठ का गान सुंदरमय होगा।।
- ललित दाधीच।।