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Dastan-E-Shayara By Reena Kumari Prajapat

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The Flower of WordThe Flower of Word by Vedvyas Mishra
The Flower of WordThe novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra

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Dastan-E-Shayara By Reena Kumari Prajapat

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The novel 'Nevla' (The Mongoose), written by Vedvyas Mishra, presents a fierce character—Mangus Mama (Uncle Mongoose)—to highlight that the root cause of crime lies in the lack of willpower to properly uphold moral, judicial, and political systems...The novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra

कविता की खुँटी

                    

अनंत ज्योति का अजस्र जगत

सर्वप्रथम बहिन रीना प्रजापति जी को मंच पर आमंत्रित करने के लिए बहुत आभार, मंच एवं आदरणीय प्रबुद्ध जनों को प्रणाम।

१. उत्पत्ति का उन्मेष, उषा का उल्लास
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उषा—उन्मुक्त उल्लसित उर्वशी,
जो अँधेरे के आँचल में
अंबर का अंगारा रखकर चली आती है।
हवा हल्के-हल्के
हँसी की होली खेलती,
खेतों को खुशियों की खुराक देती है।

सूरज—
स्वर्ण-सिंहासन पर बैठा सूर्य-सैनिक,
जो प्रकाश की प्रचंड पराग लेकर
आकाश के काले कक्ष को काट देता है।

ओस—ओढ़नी ओढ़े ओजस्विनी,
जो घास की गर्दन पर
गुलमोहर-गहना बनकर झूलती है।

धरती—धरा-माँ,
जिसका धैर्य ऐसा कि
सागर भी उसके चरण छूकर शांति सीखता है।
---

========================

२. नदियों के नगमें, तरंगों की तान

नदी—नव-नटराजिनि,
नाभि से निकले नील नभ का
नर्तन बन जाती है।

लहरें—लहलहाती लाजवंती लड़कियाँ,
जो चट्टानों के चितवन में
छिपे प्रेम को छेड़ती रहती हैं।

सागर—
संयमी सन्यासी,
लेकिन भीतर वज्र-वेग वाला वज्रासन लिए हुए।

और नदी—बारंबार,
“मैं जीवन की जिह्वा हूँ,
तृष्णा का तरंग-गान हूँ।”

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३. वृक्षों की वाणी, हवा का हिलोर-हास

पेड़—पितामह-पुरखों के पर्वत-से प्रहरी,
जो समय की चोटें सह-सहकर भी
छाया की चादर बिछाए रहते हैं।

पत्ते—
पत्र भी, पंख भी,
जो ज्ञान भी देते हैं और उड़ान भी देते हैं।

हवा—हठी हंसिनी,
जो शाखों में शबनमी शोर बोती है,
जैसे गीतों के बीज।

शाख़ें—
शैशव-सी शरारती सहेलियाँ,
जो हवा को पकड़-पकड़कर
गुदगुदी की गाथा लिखती हैं।

========================

४. पुष्पों की प्रार्थना, सुगंध का स्वप्न

फूल—फरिश्तों की फ़रफराती फ़ौज,
जो रंगों को राग और
सुगंध को सरगम बनाती है।

पंखुड़ियाँ—
पलकों जैसी पवित्र परतें,
जो मन के माथे पर
मौन-चुंबन रख देती हैं।

वे कहते हैं:
“हमारी खुशबू से ब्रह्मांड बाँसुरी बन जाएगा।“

काँटे—
कर्तव्य के कठोर कुंचिकाकार,
दर्द देकर भी
दिशा देते हैं,
घाव देकर भी
गौरव गूँथते हैं।

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५. चाँद का चरित, नक्षत्रों की नृत्यलीला

रात—रजनी-रागिनी,
कभी रोती, कभी रचती,
कभी राह दिखाती,
कभी रुकावटों में रोशनी बोती।

चाँद—
चंदा भी, चाँद भी, चंद (क्षण) भी,
तीनों अर्थ एक ही श्वास में चमकते हैं।

वह स्वप्नों की स्याही लेकर
सितारों की स्लेट पर लिखता है:
“अपनी उड़ानें ऊँची करो—अभी आकाश अधूरा है।”

तारे—
तरुण तराशे हुए तेज-तरकश,
जो रात की रानियों पर
उजाले के उर्वर तीर चलाते हैं।

टूटता तारा—
दर्द का दर्पण,
जो गिरते हुए भी
गृह-गगन को गरिमा देता है।

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६. अँधेरे की अलौकिक आग

अँधेरा—
अगाध, अदृश्य, अध्यापक,
जो प्रकाश को समझने की
सूक्ष्म दृष्टि देता है।

वह मन की
छत पर चिपकी चिंताओं को
धीरे-धीरे धोकर
नई दीवारें खड़ी करता है।

रात—
रसप्रिया रानी,
जो भय के भुजंग को
बुद्धि के संगीत में बदल देती है।

========================

७. मनुष्य—मर्म का महासंगीत

मनुष्य—
चाल, चरित्र, चेतना का चमत्कार,
जिसके रक्त में
अनादि अनुगूँज बहता है।

उसके शब्द—
शल्य भी, शरण भी,
जो चोट भी देते हैं और चंगाई भी करते हैं।

उसकी मुस्कान—
मधुमास की मधुर मंत्रणा,
जो मृत इच्छा को
जीवित ज्वाला बना देती है।

उसके आँसू—
आकाश का अर्क,
जो धरती की धूल को
हीरे-सा चमका देते हैं।

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८. दुख का द्वंद्व, सुख का सृजन

दुख—
दर्पण-दुर्बोध दर्शक,
जो दरारों में भी
दिशा दिखाता है।

सुख—
सरिता-सा सरल संगम,
जो थकान को
तरल कर देता है।

निराशा—
नागिन-सी नर्तनरत,
जो डसती भी है,
और जगा भी देती है।

आशा—
अग्नि-अंश,
जो बुझते-बुझते भी
ब्रह्मांड को
बिजली-सी बाँध लेती है।

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९. स्वप्नों का स्तवन, संभावनाओं का समर

सपने—
सहस्र-सैनिक,
जो अंतर-आकाश में
अदृश्य युद्ध लड़ते हैं।

इच्छाएँ—
इंद्रधनुषी इक्षु-कलिकाएँ,
जो रात के
तलाब में तैरती रहती हैं।

कल्पनाएँ—
कमल-कुँवारी कविताएँ,
जो ठहरे पानी को
पारावार बना देती हैं।

साहस गिरता है तो
ब्रह्मांड—
बड़े भाई की बाँहों सा—
कहता है:
“चलो, फिर से सूरज बनेंगे।”

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१०. अनंत का आह्वान, अस्तित्व का उन्माद

सृष्टि—
संगीतमय समुद्र,
जहाँ हर धड़कन एक ढोल,
हर स्मृति एक शंख,
हर सांस एक सुगंधित श्लोक है।

हम—
अलंकृत आत्माएँ,
जो निरंतर
अर्थों की अग्नि में
स्वयं को तपाकर
अनंत की ओर बढ़ते जाते हैं।

हमारे भीतर—
स्वप्नों का समंदर,
प्रयत्नों का पर्वत,
और प्रेम की
अनगिनत पंखुड़ियाँ खिली रहती हैं।

अंततः—
अनंत अमर-अविरल आकाश
अपनी बाहें खोलकर कहता है:
“आओ, अपनी उड़ानें अनंत कर लो।
तुम सिर्फ मनुष्य नहीं—
महाकाव्य हो।”

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रचना के बारे में पाठकों की समीक्षाएं (3)

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रीना कुमारी प्रजापत said

वाह क्या वर्णन किया है आपने सभी का बहुत खूबसूरत रचना... स्वागत है आपका हमारे लिखंतु परिवार में...आपको यहां देखकर अत्यंत खुशी हुई.... बहुत बहुत धन्यवाद आपका 🙏

वेदप्रकाश वर्मा replied

🙏🙏

सरिता पाठक said

वाह हर शब्द का कितना सुन्दर ढंग से समझाया आपने ऐसा प्रतीत होता है आपने महा काव्य रच दिया, हर्दिस्पर्शी सर्वश्रेष्ठ रचना 👌👌आदरणीय सर जी को व आपकी लेखनी को नतमस्तक हो शत शत नमन 🙏🙏

वेदप्रकाश वर्मा replied

🙏🙏

मनोज कुमार सोनवानी "समदिल" said

अति सुन्दर अति सुंदर अतिसुंदर 👌👌👌 इतनी सारगर्भित कविता जिसकी तारीफ करना सूरज को दिया दिखाना है।आपको सादर प्रणाम 🙏🌹🙏

वेदप्रकाश वर्मा replied

🙏🙏

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