गाँव के एक छोटे से घर में,
चूल्हा जल रहा था,
माँ आटे की लोइयाँ बेल रही थी,
बेटी — सुधा — किताबों में डूबी थी।
माँ ने पुकारा —
“बिटिया, दो रोटियाँ सेंक दे,
तेरा बाबू खेत से लौट आए हैं।”
सुधा ने किताब रख दी,
रोटियाँ सेंकी, पानी रखा,
और फिर माँ के पास बैठ गई।
धीरे से पूछ बैठी —
“माँ, एक बात पूछूँ?”
माँ ने मुस्कुराकर कहा —
“पूछ बेटी, जो पूछना हो।”
सुधा बोली —
“माँ, मेरा क्या कर्तव्य है?
बस तुम्हारी सेवा करना?
या कुछ और भी?”
माँ ने आटे पर हाथ पोछा,
गहरी नजर से बेटी को देखा,
फिर कहा —
“बिटिया, पुत्री का कर्तव्य,
सेवा करना ज़रूर है —
पर सिर्फ़ सेवा नहीं।
तेरा पहला धर्म है —
खुद को गढ़ना,
खुद को सँवारना।”
“आज की बिटिया,
घर की इज्जत तो है ही,
पर अब वह
समाज की चेतना भी है।”
“तुझे पढ़ना है,
आगे बढ़ना है,
ताकि जब कोई देखे,
तो कहे — देखो, ये तो
हमारी सुधा है —
जिसने नाम रोशन किया।”
“पर याद रखना —
जैसे नींव मजबूत हो तभी महल टिकता है,
वैसे ही
जड़ें भूल मत जाना।”
“संस्कार — तेरी जड़ हैं,
ज्ञान — तेरी शाखाएँ।
दया — तेरे फूल हैं,
और स्वाभिमान — तेरे फल।”
“जब दुनिया तुझे देखे,
तो उसमें माँ-बाप का आदर भी दिखे,
और तेरा अपना उजाला भी।”
सुधा चुपचाप सुनती रही।
अंगीठी की आँच में जैसे उसका मन पकता रहा।
एक नयी समझ, एक नयी आग उसकी आँखों में चमकने लगी।
वह बोली —
“माँ, मैं वचन देती हूँ —
तुम्हारा सिर भी ऊँचा करूँगी,
और अपना आत्मसम्मान भी।”
माँ ने उसे गले से लगा लिया।
चूल्हे की लौ फड़फड़ा उठी —
जैसे खुद अग्नि भी इस नये संकल्प की साक्षी बन रही हो।

The Flower of Word by Vedvyas Mishra
The novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra



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