पहलगाम की उन घाटियों में,
जहाँ कभी बकरियाँ चरती थीं,
जहाँ नदियाँ लोकगीत गुनगुनाती थीं,
अब बारूद की गंध है,
और सन्नाटे में बच्चों की चीखें हैं।
छब्बीस लोग —
न कोई राजा, न कोई रंक,
बस इंसान थे।
किसी के खेत में हल चलाते थे,
किसी की दुकान पर चाय उबलती थी।
पर एक सवाल पूछ बैठें —
“तुम्हारे जैसे क्यों नहीं हैं हम?”
तो ज़िंदा लौटने का हक़ भी छिन गया।
बोलो —
क्या मज़हब इतना छोटा हो गया है
कि अब उसे बंदूक से बचाना पड़ रहा है?
धर्म जहाँ तलवार से डराए,
वहाँ वो धर्म नहीं,
किसी सत्ता की भूखी आँख है।
वो मासूम बच्चा,
जो कल अपनी माँ के आँचल में दूध पी रहा था,
आज उस माँ की गोद में राख बनकर पड़ा है।
क्या उसने किसी किताब से इंकार किया था?
नहीं।
उसने सिर्फ़ साँस ली थी —
इस देश में,
इस धरती पर।
क्या साँस लेना भी अब कुफ़्र है?
मुंह पर टोपी, हाथ में कलमा,
पर दिल में नफ़रत की आँच —
ऐसे धर्म से तो मेरा गाँव का तुलसी का बिरवा ही अच्छा,
जो सबको छाँव देता है।
वो बूढ़ा रामू चाचा,
जो नमाज़ के वक़्त अज़ान सुनकर चुप हो जाते थे,
आज उनके बेटे को
क्यों ज़मीन में दबा दिया गया?
किसके ख़िलाफ़ थी उसकी साँसें?
किसे डर था उसकी ज़िन्दगी से?
मैं पूछता हूँ —
ये कैसा इंसाफ़ है,
जो बंदूक की नली से निकलता है?
ये कैसी इबादत है,
जिसमें इंसान नहीं बचता?