हाँ, अब शब्द नहीं चाहिए —
शब्द थक चुके हैं,
सत्य की पीठ पर बोझ बन चुके हैं
ये भाषण, ये प्रवचन, ये घोषणाएँ।
अब समय आ गया है कि —
धरती बोले, आकाश बोले, अग्नि बोले!
उठो, हिमालय!
तेरे मौन ने बहुत सहा —
अब सिंहनाद कर!
कि जिस भूमि पर बुद्ध ने करुणा बोई,
वहीं अब अधर्म की खेती क्यों?
हे गंगा!
क्यों बहती हो चुपचाप,
जब तेरी लहरों में लाशें हैं
और आँखों में राख?
क्या तुझे भी अब क्रंदन नहीं आता?
और तुम —
जो सत्ता के सिंहासन पर सोए हुए देव हो,
तुम्हारे ताज में अब न झिलमिल है,
न तेज —
बस प्रपंच है,
और गूंगा तमाशा।
अब सुनो!
जब मनुष्य, मनुष्यता से बड़ा हो जाए —
तो प्रलय ही परमात्मा होता है।
जब शासन अन्याय का सेतु हो —
तो क्रांति उसका विसर्जन है।
चलो,
फिर से जन्म लें —
पर मृत्यु के गर्भ से।
चलो,
फिर से जीएँ —
पर उस जीवन से
जहाँ आँसू नहीं,
अग्नि जन्म लेती है।
अब वो नहीं बचेगा
जो बचकर जीता रहा —
अब वही बचेगा
जो जलकर जिया!
क्योंकि जब अन्याय न्याय की सीमा लाँघता है,
तो ब्रह्मांड भी युद्ध रचता है!
“अब प्रलय ही न्याय है —
क्योंकि सहना पाप हो गया है!”

The Flower of Word by Vedvyas Mishra
The novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra



The Flower of Word by Vedvyas Mishra




