"ग़ज़ल"
अपनी दीवानगी का सबब याद आया!
वो तिरा परी-चेहरा था अब याद आया!!
अपनी आशिक़ी में क्या लुटा बैठा है!
ये किसी आशिक़ को भला कब याद आया!!
तुम्हें अपनी क़सम दे के रोक लेना था!
तुम चले गए रूठ के तब याद आया!!
तिरी याद मिरे वजूद पर छाई थी!
हिज्र की उस रात तू ग़ज़ब याद आया!!
दिन भर की मिरी मिन्नत ठुकरा दिया उस ने!
फिर मुझे मिरा नाला-ए-शब याद आया!!
'परवेज़' हाल-ए-दिल पे हम ज़ार ज़ार रोए!
वो संग-दिल सनम हमें जब याद आया!!
- आलम-ए-ग़ज़ल परवेज़ अहमद
© Parvez Ahmad