एक आदमी,
जिसने बचपन में माँ की उँगलियाँ थामीं,
पिता की छाँव में सपने सींचे,
फिर खुद किसी की उँगलियाँ थामकर
अपनी राहों को पीछे छोड़ दिया।
वह आदमी,
जिसने जवानी की सीढ़ियाँ चढ़ते-चढ़ते
अपने कंधों को बोझ की आदत डाल ली ,
जिसने घर की दीवारों से टकराकर भी
हर दर्द को मुस्कान में ढाल लिया।
जिसने रिश्तों की आग में खुद को झोंका,
अपनी ज़रूरतों को दूसरों की ख़ुशी बना लिया,
हर रात किसी की चिंता में आँखों से नींद हटा दी,
और सुबह फिर उम्मीद की गठरी उठा ली।
अब जब वह थककर किसी कोने में बैठा है,
तो दीवारें भी चुप्पी साधे रहती हैं,
अपने ही उगाए पेड़ की छाँव
अब उसे पराई लगती है।
उसके अपने,
जिनके लिए उसने अपनी हर ख़्वाहिश गिरवी रख दी,
अब उसे यह समझाने आते हैं—
“आप आराम करें…
अब कुछ सोचने की जरूरत नहीं।”
लेकिन वह आदमी,
जिसने उम्र भर अपने ही अपनों से समझौते किए,
अब खुद को समझाने की ताकत भी खो चुका है।
लाचारी के कंधों पर टिके
धीरे-धीरे बुढ़ापे की उस चौखट तक पहुँच रहा है,
जहाँ रिश्ते कागज़ की तरह हल्के,
और यादें धुंध की तरह बिखरी हैं।
जहाँ हर शाम—
एक अधूरी बातचीत में खो जाती है,
और हर सुबह—
बस जीने की औपचारिकता निभाने के लिए उगती है।
-इक़बाल सिंह “राशा”
मानिफिट, जमशेदपुर, झारखण्ड