समझ लो कि, है मुख़्तसर ज़िंदगानी ।
न दिल में रखो कोई भी बदगुमानी ।
छलक जाएंगे ख़ुद ही आंखों से आंसू ,
अगर तुम सुनोगे हमारी कहानी ।
आप से दूर थोड़ी हो जाते ।
इतना मजबूर थोड़ी हो जाते ।
आप मिलते तो कुछ खुशी मिलती ,
ग़म से हम दूर थोड़ी हो जाते ।
फ़क़्त चार दिन की इस ज़िंदगानी में ,
फ़ानी क़ायनात मेरी क्या होगी ।
मेरा होकर भी जब कुछ नहीं मेरा ।
जिस्म और रूह भी मेरी क्या होगी ।
ज़िंदगी में जिसने एक कमी रक्खी ,
उसने आंखों भें एक नमी रक्खी ।
महल ख़्वाबों का देखने के लिए ।
उसने यादों की एक ज़मी रक्खी ।
कोई मरहम असर नहीं करता ,
वक़्त भी अब ज़ख़्म नहीं भरता ।
तेरी आदत में ढल गया शायद ।
अब तो शिकवा भी दिल नहीं करता ।
उसको फिर उसका हासिल कहां मिले ,
भटके हुए को रास्ते को मंज़िल कहां मिले ।
पढ़ने का ख़ुद को आ जाए जो शऊर ।
उसको फिर उससा क़ाबिल कहां मिले ।
कोई गुरबत से डर गया होगा ।
कोई फ़ाक़े से मर गया होगा ।
उसकी आंखे , यूं नम नहीं होंगी ।
सब्र का जाम भर गया होगा ।
----डाॅ फौज़िया नसीम शाद