👉बह्र - बहर-ए-रमल मुसम्मन महज़ूफ़
👉 वज़्न - 2122 2122 2122 212
👉 अरकान - फ़ाएलातुन फ़ाएलातुन फ़ाएलातुन फ़ाइलुन
भीड़ में दुनिया की चलता जा रहा है आदमी
फ़िर भी होता आज तन्हा जा रहा है आदमी
यूँ गुमाँ में माल-ओ-ज़र के फ़िर रहा पागल हुआ
ख़ून के रिश्ते भी भूला जा रहा है आदमी
चाह सब पाने की है कोशिश मगर करता नहीं
सिर्फ ख़्वाबों को सजाता जा रहा है आदमी
आदमी का कोई भी दुश्मन नहीं है दूसरा
हर घड़ी ख़ुद से ही उलझा जा रहा है आदमी
कर रहा है क़त्ल-ओ-ग़ारत लूटता है आबरू
दिन-ब-दिन हैवान बनता जा रहा है आदमी
नाम पर मज़हब के जाति के सियासी खेल में
'शाद' आपस में लड़ाया जा रहा है आदमी
©विवेक'शाद'