दुनिया में देखता हूँ, तो क्या देखता हूँ..
ये ज़मीं, आसमां, और हवा देखता हूँ..।
मेरे कोई उसूल, अब ज़माने वाले नहीं..
अपनी वफ़ा में, अपनी ख़ता देखता हूँ..।
वो मौसम नहीं, वो बारिशें भी बीत गई..
यादों की तस्वीर में, कोई घटा देखता हूँ..।
बरसों हुए कि, जुगनुओं के बस्ती विराँ है..
कुछ रोशनियां है, वहां भी धुआँ देखता हूँ..।
मैं जब भी इश्क–ए–मंज़र से गुज़रता हूं..
चराग़-ए-राह-ए-वफ़ा को बुझा देखता हूँ..।
पवन कुमार "क्षितिज"