सोचा, चलूँ,
और चलने लगा,
कुछ राह मिला,
हाथ ना लगा,
हाथ फिर मलने लगा,
कुछ तन्हाई,
हिस्से आयी,
उसको अपनाया,
सिर माथे लगाया,
कुछ चोटें,
कुछ डांट डपट,
और कुछ ठोकर,
उस अनंत राह में,
दीं किसने,
कुछ पता नहीं,
पर मुझे मिली,
मंजूर हुयी,
सूरज की लालिमा,
देखने की,
जब जब इच्छा,
मन में जागी,
तब तब,
दिनकर,
और किस्मत भी,
धोका देकर के,
यूँ भागी,
जैसे मेरा,
कुछ ना यहाँ पर।
----अशोक कुमार पचौरी