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The Flower of WordThe Flower of Word by Vedvyas Mishra The Flower of WordThe novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra

कविता की खुँटी

        

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Dastan-E-Shayara By Reena Kumari Prajapat

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The novel 'Nevla' (The Mongoose), written by Vedvyas Mishra, presents a fierce character—Mangus Mama (Uncle Mongoose)—to highlight that the root cause of crime lies in the lack of willpower to properly uphold moral, judicial, and political systems...The novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra

कविता की खुँटी

                    

मेरी अनोखी रेल यात्रा

Apr 24, 2025 | रेखाचित्र | Ritesh Goel  |  👁 370,113

घर पर आया एक शादी का कार्ड,
दिल्ली से कोलकाता जाना था चार दिन बाद,
विवाह का न्यौता मैं कभी नहीं छोड़ता हूँ,
विवाह-स्थल पर खाना शुरू होने से पहले ही पहुँचता हूँ,
दिल्ली से कोलकाता रेल का तत्काल आरक्षण करवाया,
साधारण डब्बे का अस्थायी टिकट पाया,
अब मैं सुनाता हूँ आप को अपनी रेल यात्रा का वृतांत,
जिसने मुझे रुलाया छठी का दूध याद दिलाया,
मगर ये आप को हँसायेगा,गुदगुदाएगा,
फ्री में रेल यात्रा का अनुभव करवाएगा,
हम रेल के इंतज़ार में स्टेशन पर खड़े थे,
बल्कि यु कहिये आँखे बिछाये प्लेटफॉर्म पर पड़े थे,
मगर रेल नहीं आई, रेलवे पूछताछ केंद्र ने रेल 12 घंटे लेट बताई,
कचोरी वाले से हमने 17 कचोरी खाई,
मगर रेल फ़िर भी नहीं आई,
आखिर में जब इंतज़ार करते-करते हमारा दम निकलने लगा,
स्टेशन पर रेल का इंजन दिखने लगा,
यह देख हमने राहत की साँस ली,
खुद को ढांढस बंधाया,
चलो प्रस्थान का शुभ समय तो आया,
अभी तो काफी समय शेष हैं,
मैं खाने से एक पहर पहले ही पहुँच जाऊँगा,
और फ़िर वहाँ पर जम कर खाऊँगा,
यह सोचते-सोचते हमने अपना दांया पैर जेनरल बोगी में बढ़ाया,
मगर अपनी तशरीफ टिकाने का कोई भी विकल्प हमें नहीं पाया,
रेल एकदम ठूसम-ठूस भरी थी,
सवारियाँ एक-दूसरे पर चढ़ी थी,
आखिर में हमारी सालों की रेल यात्रा का अनुभव काम आया,
जिसने हमारी तशरीफ को एक सीट से मिलवाया,
जो कचोरियाँ हमने खाई थी वो ही काम में आई,
एक छोटे से विस्फोट ने सीटें खाली करवाई,
अब मैं एक जगह पर आसान जमा कर बैठ गया,
रेल ने भी स्टेशन से निकल पहला फाटक टाप दिया,
अब जैसे-जैसे रेल आगे को बढ़ने लगी,
हमारी भूख और भी ज्यादा बढ़ने लगी,
शादी के वो खोमचे मुझको बुलाने लगे,
खाने की वो थालियां खुद-ब-खुद सजने लगी,
मिठाईयाँ तो मुझ पर पहले से कुर्बान थी,
अभी वहाँ पहुँचने में बाकी एक शाम थी,
रेल अपनी गति से चली जा रही थी,
दावत के उन ख्वाबों से मेरी मति जा रही थी,
पर जल्द ही मेरे ख्वाबों का बन गया शेक,
आगे रेल का पुल हो गया था ब्रेक,
ट्रेन वही पर 12 घंटे से जाम थी,
आ गई शादी वाली शाम थी,
किसी तरह रेल क्रमचारियों ने रेल को चलवाया,
आखिर में मुझे मेरी मंजिल पर पहुँचाया,
कोलकाता उतरते ही मैं विवाह-स्थल के लिए भागा,
बाकी का रास्ता मैंने जल्दी-जल्दी नापा,
जब मैं वहाँ पहुँचा सब कुछ साफ़ था,
टेबल पर बचा सिर्फ पानी का ग्लास था,
हमने पानी से गला भिगाया और रिस्तेदार को शगुन का लीफाफा थमाया,
स्टेशन पर आकर वापसी का टिकट कटाया,
फ़िर वही रेल का खाना खाया,
पर घर आकर किसी को नहीं बताया,
उसके बाद मैंने कभी एक बस का टिकट भी कटाया था,
मगर वो किस्सा आप को कभी और सुनाऊँगा,
अगर आप कहेंगे तो आप का भी रेल का टिकट कटवाउंगा।
धन्यवाद।
जय हिंद।
जय भारत।
लेखक- रितेश गोयल 'बेसुध'




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