मौत बेवजह बदनाम है, जीवन हर दिन इम्तिहान है,
साँसों की गिनती सीमित है, पर इच्छाओं का आसमान है।
संधि से जुड़ते सपने सारे, समास में भावों की रेल,
उपसर्ग से बढ़ती उम्मीदें, प्रत्यय से टूटते खेल।
क्रियाएं थककर सो जातीं, संज्ञा फिर भी दौड़ती है,
विशेषणों से सजी-संवरी, आशा नित्य झगड़ती है।
विराम चिह्न भी मौन पड़े हैं, पर व्याकरण चलता रहता,
रचना की इस कठोर भूमि पर, जीवन सदा संधर्ष करता।
प्रत्येक दिन एक पाठ नया है, जिसमें भावार्थ भी उलझते,
वाक्य रचना में छिपी व्यथा, कई बार मौन ही चुपचाप बहते।
मृत्यु तो विश्राम है केवल, जिजीविषा की हार नहीं,
जो जूझे जीवन के व्याकरण से है सच्चा श्रृंगार वही।