हम अपनी ही जिंदगी में इतने फँसे है की,
बाकी जिंदगी का हमें कोई पता नहीं
हम अपने में ही इतने व्यस्त है की,
परायों का हमें कोई ध्यान नहीं
हम तालाब में ही डुबकी लगा रहे है
समुन्दर का हमें कोई ज्ञान नहीं
हमारे विचार, मान्यताएं, धारणाएँ, संस्कार इसी में हम गोता खा रहे है
परम की हमें कोई खबर नहीं
यह असीम आकाश
यह चंचल प्राणवायु
यह सूर्यमण्डल की अखंड ऊर्जा
यह जल की अंतहीन धारा
यह धरा के अनंत ऋण
क्या कहुँ प्रभु ?
तेरी संपदा का कोई छोर नहीं
पर क्या करूँ प्रभु ?
कामनाओ की लहरों पे हम जीए जा रहे है
तुझसे दूर
हे भगवंत..
अपनी ही दुनिया में हम मरे जा रहे है।
✍️ प्रभाकर, मुंबई ✍️