धीरे धीरे हर साथ छूटा
हर रिश्ता मुझसे रूठा
अगणित त्याग, क्या.. वो था झूठा
भीड़ में भी तन्हाई ने लूटा
रे प्रभु.. ए क्या, मुझसे, क्या टूटा
बचपन ने आंगन छोड़ा
युवानी ने दामन छोड़ा
मध में मंजिल ने छोड़ा
वृद्धावस्था की आस नहीं
वो तो काल का घरौंदा
रे प्रभु ए क्या, सब हैं लूटा
बाह्य चीजों का लगाव छूटा
उसका भी अब नाता टूटा
एक एक कर पहाड़ है टूटा
जगा का भी लगाव छूटा
पल कहें मैं क्यूं बाकी, मैं भी रूठा
रे प्रभु ए क्या.......
आख़िर दर्द क्यों न रूठा ??