इंसान होना केवल जन्म लेने का नाम नहीं है, बल्कि अपने भीतर मानवीय संवेदनाओं को जीवित रखना है। जिस व्यक्ति के हृदय में दया, प्रेम और मानवता का भाव नहीं है, उसे अपने इंसान होने पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। क्योंकि असली इंसान वही है जो अपने आचरण और व्यवहार से दूसरों के जीवन को सरल, सहज और सुखद बना सके।
आज के भौतिकवादी दौर में अक्सर देखा जाता है कि इंसान अपने स्वार्थ और महत्वाकांक्षाओं में इतना उलझ जाता है कि उसकी संवेदनाएँ शिथिल हो जाती हैं। सड़क पर घायल पड़े व्यक्ति की मदद करने के बजाय लोग तमाशबीन बने रहते हैं, परिवार में रिश्तों की नींव प्रेम और करुणा पर टिकने के बजाय अहंकार और उपेक्षा पर डगमगाने लगती है। ऐसे में प्रश्न उठना स्वाभाविक है — क्या ऐसे लोग सचमुच इंसान कहलाने के योग्य हैं?
सच्ची इंसानियत तो वही है जिसमें दूसरों के दुख-दर्द को महसूस करने की क्षमता हो। ज़रूरतमंद की सहायता करना, कमज़ोर का सहारा बनना, बुज़ुर्गों का सम्मान करना और बच्चों के प्रति स्नेहभाव रखना ही मनुष्यत्व का वास्तविक परिचय है। जब तक इंसान के भीतर करुणा, प्रेम और सहानुभूति जीवित है, तभी तक उसका अस्तित्व सार्थक है।
यदि हृदय में केवल कठोरता और स्वार्थ ही बस जाए, तो इंसान होकर भी इंसानियत मर जाती है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इंसानियत ही हमारी सबसे बड़ी पहचान है।
हर व्यक्ति को आत्ममंथन करना चाहिए कि उसका जीवन केवल अपनी ज़रूरतों और इच्छाओं की पूर्ति तक सीमित है या उसमें दूसरों के लिए भी स्थान है। इंसानियत के बिना इंसान अधूरा है। इसलिए आवश्यक है कि हम दया, प्रेम और करुणा को अपने जीवन का मूल आधार बनाएं। तभी हम सच्चे अर्थों में “ इंसान” कहलाने के योग्य होंगे।
डाॅ फ़ौज़िया नसीम शाद