थोड़ी तूफ़ानी हरक़त….
आज बारिश गिरी
छाता ने कहाँ संग ले जा सखी
फिर क्या.....
'वो' थी 'मैं 'थी और..
बीचमें ये हवा कर जाती गुदगुदी
'वो' पुरी भीगी 'मैं' आधी
मुझे सूखा रखने में 'वो' लगी
फिर क्या.....
बीचमें बुँदे हसंकर सताने लगी
वक़्त था मिट्टी थी आहट उसकी थी
स्पंदन में जैसे छबि निकट थी
फिर क्या.....
एहसास की छड़ी बरसने लगी
तेज़ हवा चली छाते को कह रही
होश में ला 'सखी' तेरी बहक रही
फिर क्या.....
छतरी नट-खट,सर से सरकने लगी
मिट्टी के बने मिट्टी में फिर गले
सिलसिला तो जैसे जादू करें
फिर क्या....
गहरी सोच संग, "छाता" और 'मैं' चल पड़े