सो जाता हूँ ओढ़कर मजबूरियों की थकान,
मिल सके जहाँ सुकून बताओ कोई दुकान।
घर को घर बनाने के लिए घर छोड़ना पड़ा,
वर्षों से देखा नहीं गाँव, गली और मकान।
महफ़िल सज जाती थी तालाब की मेड़ पर,
रहता हूँ जिस चारदीवारी में, वो है बेजान।
अजनबी हूँ! पहचान वाले नहीं करते बात,
बातें करते थे मेड़,पेड़, खेत और खलिहान।
🖊️सुभाष कुमार यादव