"ग़ज़ल"
अब मैं क्या कहूॅं? मैं क्या लिखूॅं? किसे क़दर है मिरे कलाम का!
सभी बे-नियाज़ी से आगे बढ़ गए बिना जवाब दिए मिरे सलाम का!!
मैं ये आज तक न समझ सका लोग करते हैं प्यार क्यूॅं भला!
ऐसा कौन है जिसे पता न हो अपनी मोहब्बत के अंजाम का!!
तिरी यादों को दिल से मिटा दिया तुझे ऐ बे-वफ़ा! मैं ने भुला दिया!
अभी अंजाम तू ने देखा कहाॅं ये आग़ाज़ है मिरे इंतिक़ाम का!!
जानता है सच्चाई ये सारा जग हैं साथ रह के भी हम अलग-अलग!
है वो दिन से रात का जो वास्ता ये वो रिश्ता है जो सुबह से शाम का!!
हर इक एहतिजाज को दबा दिया बोला जिस ने भी उसे मिटा दिया!
'परवेज़' अब हर तरफ़ इक सन्नाटा है न है शोर कहीं किसी कोहराम का!!
- आलम-ए-ग़ज़ल परवेज़ अहमद
© Parvez Ahmad